| ||
मनोज बाजपेयी न केवल एक असाधारण अभिनेता हैं अपितु असाधारण व्यक्तित्व भी हैं। हिन्दी सिनेमा में मनोज बाजपेयी एक प्रयोगकर्मी अभिनेता रहे है। विविधता उनकी पहचान है, यही कारण है कि बैंडिट क्वीन, तमन्ना, सत्या, शूल, जुबैदा, अक्स, पिंजर, रोड, मनी है तो हनी है जैसी फिल्मों में अलग अलग किस्म की भूमिकायें निभा कर मनोज बाजपेयी एसे कलाकार के रूप में स्थापित होते हैं जो किसी एक प्रकार में नहीं बंधता। बिहार के पश्चिमी चंपारण के छोटे से गांव बेलवा में जन्मे मनोज बाजपेयी की आरंभिक कर्मभूमि दिल्ली रही है जहाँ उन्होंने रामजस कॉलेज से अपनी शिक्षा पूरी की। दिल्ली थियेटर से अभिनय की शुरुआतकर मनोज बाजपेयी नें आकाश को छुआ है। मनोज जी! आपके अनुसार मनोज बाजपेयी क्या है? मनोज बाजपेयी: मनोज बाजपेयी क्या है?... मनोज बाजपेयी एक गाँव का आदमी है जो एक अभिनेता है, एक अभिनेता रहने की कोशिश करता है और उस अभिनेता के साथ जस्टिफ़ाई करने की कोशिश करता है। (मनोज बाजपेयी एक गाँव का आदमी है जो एक अभिनेता है, एक अभिनेता रहने की कोशिश करता है और उस अभिनेता के साथ जस्टिफ़ाई करने की कोशिश करता है।) आपने बहुत सी फिल्में की हैं. आपका पसन्दीदा रोल कौनसा रहा आपकी फिल्मों में? मुश्किल होता है किसी भी अभिनेता के लिये ये कह पाना, लेकिन ये है कि चाहे वो "शूल" हो, चाहे "बैंडिट क़्वीन" हो या फिर "तमन्ना" हो, "सत्या" हो या "कौन" हो, ये सब बहुत सोच समझ के ली हुई फिल्में थीं और बड़ी मेहनत से की गई फिल्में थीं। फिर भी मैं कह सकता हूँ कि "1971" मेरे दिल के बहुत करीब है और "स्वामी" बॉलीवुड के आपके शुरुआती दिनों में ही आपको महानायक अमिताभ बच्चन के साथ अक्स फिल्म में काम करने का मौका मिला। इस फिल्म से जुडा कोई ऐसा वाकया जो आप पाठकों को बताना चाहेंगे। अक्स फिल्म के साथ जुडा एक-एक वाकया मेरे लिये अनुभव है। महानायक अमिताभ बच्चन के साथ कार्य करना ही ऐसा अनुभव था जिसे मैं हमेशा याद रखना चाहूँगा। पात्र के चयन में आप किस बात को अधिक महत्व देते हैं? उसका आलराउण्ड अस्पेक्ट हो, डाइमेन्शन उसका राउण्ड हो। कहीं से भी वो पूरी तरह से सिर्फ हीरो न दिखाई दे या सिर्फ विलैन न दिखाई दे। एक ग्रे शेड उसमें हमेशा रहे, उसकी गुंज़ाइश रहे और एक अच्छी स्क्रिप्ट का हिस्सा हो। मनोज जी! फिल्मों से थोड़ा हट कर हम नाटक की तरफ आते हैं, नाटक और फिल्मों के बीच एक कलाकार के तौर पर आप क्या अंतर पाते हैं? मेरे हिसाब से कभी कोई फ़र्क़ नहीं रहा है क्योंकि मैंने जिस समय नाटक किया, उसका साइंटिफिकली काफी विकास हो चुका था। आजकल के नाटक उस हिन्दी शब्द 'नाटकीय' से अलग हो चुके हैं। कहीं न कहीं बहुत जीवन्त होते हैं, रियलिज्म के बहुत करीब होते हैं। फिर भी मनोज जी, ऐसा नहीं लगता कि नाटक को वो स्थान नहीं मिल पाया जो उसे मिलना चाहिये. रंगमंच का क्या भविष्य है? रंगमंच का भविष्य अभी हाल-फिलहाल तो जैसा है वैसा ही रहेगा। न उसको कोई सपोर्ट है, न उसको देखने वाले हैं। जिस तरह से टेलिविजन का विस्तार हुआ है, उससे मिडिल क्लास ने तो घर से निकलना ही बंद कर दिया है। थियेटर कुछ एक चुनिंदा लोगों के शौक़ के कारण ज़िंदा थी और ज़िंदा रहेगी। आपके अनुसार नाटक का पतन हो रहा है या ये जीवित रहेगा? जीवित रहेगा. थियेटर कभी भी खत्म नहीं हो सकता। जिस समय से इंसान पैदा हुआ है तब से थियेटर है और हमेशा रहेगा। लेकिन हाल-फिलहाल में उसका भविष्य यदि कहें कि ब्राडवे की तरह हो जायेगा या फिर ये कहें कि वो लंदन के थियेटर की तरह से हो जायेगा या पेरिस के थियेटर की तरह से हो जायेगा; तो ये कहना अभी मुश्किल है। दिल्ली थियेटर से आप कभी लंबे समय तक जुड़े रहे हैं. आपका इसके संदर्भ में क्या विचार है? दिल्ली थियेटर मेरे हिसाब से काफी प्रोग्रैसिव थियेटर सर्कल है लेकिन दुख इस बात का है कि वहाँ पे उसे दर्शक नहीं मिल पाते हैं। जन-नाट्य मंच से जुडे आपके अनुभव? जननाट्यमंच से मैं अधिक तो नही जुडा रहा लेकिन कुछ एक नुक्कड नाटक मैने किये हैं। हाँ सफदर हाशमी से मेरी मित्रता थी, जिनकी हत्या भी हो गयी थी। नुक्कड नाटक अभिनेता को दर्शकों से सीधे जोडता है यह अनुभव मैने उस समय किया। दिल्ली रंगमंच पर आपका एक नाटक “नेटुआ” काफी प्रसिद्ध हुआ था। ये भी सुनने में आया था कि आप इस पर एक फिल्म भी करने वाले हैं। क्या ये सच है? यह मेरी योजना अवश्य थी किंतु अब मैने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। यह बहुत अच्छा नाटक है और अब कोई नया कलाकार ही इसे करेगा। फिल्म और साहित्य के बीच आप कैसा संबंध पाते हैं, दोनों के बीच पैदा होती दूरी के लिये किसे जिम्मेदार ठहरायेंगे? फिल्म और साहित्य के बीच आज दूरी आ गयी है, ऐसा होना नहीं चाहिये। इस दूरी के लिये फिल्मकारों को ही दोषी ठहराना होगा। लेकिन ऐसा नहीं है कि अच्छे साहित्य पर फिल्में बनायी गयी तो वे चलेंगी नहीं या लोग उसे पसंद नहीं करेंगे। क्या साहित्यिक पृष्ठभूमि पर आज भी अच्छी और सफल व्यावसायिक फिल्म बनायी जा सकती है? बिलकुल बनायी जा सकती हैं और हाल फिलहाल तक बनती भी रही हैं। मैं अपनी फिल्म पिंजर का जिक्र करना चाहूँगा जो कि एक प्रसिद्ध उपन्यास पर बनी है और अपनी पटकथा के कारण दर्शकों के द्वारा भी बहुत सराही गयी। साहित्य और सिनेमा को किसी भी तरह से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। अच्छे साहित्य पर बनने बाली फिल्मों को दर्शकों की प्रशंसा अवश्य मिलेगी। आपने बैरी जॉन के मार्गदर्शन में स्ट्रीट चिल्ड्रेन के साथ काफी काम किया है। उन बच्चों के साथ गुजारे गये लम्हों ने आपको बेहतर अभिनेता और बेहतर इंसान बनने में कितनी मदद मिली। हाँ मैं इन पलों को अपने जीवन के श्रेष्ठतम क्षणों में रखता हूँ। यह सही है कि इन क्षणों ने मनोज बाजपेयी को निश्चित तौर पर बेहतर इंसान बनने में मदद की। कुछ मित्रों के प्रोत्साहन से मैंने भी अपना ब्लॉग बना लिया और अब जितना भी समय मिलता है, इस माध्यम से अपने चाहने वालों से रूबरू होने की कोशिश करता रहता हूँ। यह अच्छा माध्यम है। जहाँ लोग एक अभिनेता से इतर मनोज के व्यक्तित्व को या उसके जीवन के दूसरे पहलू से परिचित हो सकते हैं। यहाँ मैं उन विषयों पर भी बात कर सकता हूँ जो मैं सोचता रहता हूँ या मेरे भीतर विचार की तरह हैं। ब्लॉगिंग का सुनहरा भविष्य है तथा यह एक अच्छा माध्यम है अपने विचारों को सीधे पहुँचा सकने का। मुझे ब्लॉगिंग में आनंद आ रहा है। आप एक ब्लॉगर भी हैं .. हिन्दी में ब्लॉग लिखने वाले आप पहले सेलीब्रिटी हैं। आपको ब्लॉग बनाने की प्रेरणा कैसे मिली और आपके विचार से ब्लॉगिंग का भविष्य क्या है ? कुछ मित्रों के प्रोत्साहन से मैंने भी अपना ब्लॉग बना लिया और अब जितना भी समय मिलता है इस माध्यम से अपने चाहने वालों से रूबरू होने की कोशिश करता रहता हूँ। यह अच्छा माध्यम है। जहाँ लोग एक अभिनेता से इतर मनोज के व्यक्तित्व को या उसके जीवन के दूसरे पहलू से परिचित हो सकते हैं। यहाँ मैं उन विषयों पर भी बात कर सकता हूँ जो मैं सोचता रहता हूँ या मेरे भीतर विचार की तरह हैं। ब्लॉगिंग का सुनहरा भविष्य है तथा यह एक अच्छा माध्यम है अपने विचारों को सीधे पहुँचा सकने का। मुझे ब्लॉगिंग में आनंद आ रहा है। अपने चाहने वालों को कृपया अपने आने वाली फिल्म के बारे में कुछ बताएँ मेरी आने वाली फिल्म का नाम है जुगाड। जुगाड दिल्ली में हुई एम.सी.डी की सीलिंग के दौरान की सत्य घटना पर आधारित फिल्म है। इसमें मेरी भूमिका एक विक्टिम की है। हमें खबर मिली है की मुंबई की एनिमेशन कंपनी माया एंटरटेनमेंट लिमिटिड (एमईल) ने आपको भगवान राम के चरित्र के लिये आवाज देने का प्रस्ताव रखा है.. क्या यह सच है और आप इसे किस प्रकार देख रहे हैं? जी आपकी खबर बुलकुल सच है बल्कि यह कार्य मैंनें अधिंकांश कर भी लिया है। राम के चरित्र को आवाज देते हुए मैने यह ध्यान रखने की कोशिश की कि मेरी आवाज राम जैसे महान चरित्र के अनुकूल हो सके। यह भिन्न तरह का अनुभव था जो मेरे सामान्य कार्य करने के तरीके और प्रकार से बिलकुल ही भिन्न था। हाल में मुम्बई पर हुए आतंकी हमले पर आप क्या कहना चाहेंगे? आपने अपने ब्लॉग पर भी इस विषय पर चर्चा की है। अब तो इस विषय पर राजनीति भी आरंभ हो गयी है। मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों की कडी आलोचना होनी चाहिये। लोगों की प्रतिक्रियायें जो आ रही हैं वह जायज हैं। भारत पर इस तरह का हमला करवाने वालों को पता चलना चाहिये कि हम कोई कमजोर मुल्क नहीं है। इस हमले में मारे गये सभी शहीदों और निर्दोश नागरिकों को मेरी श्रद्धांजलि है। एसी घटनायें नहीं होनी चाहिये। मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमलों की कडी आलोचना होनी चाहिये। लोगों की प्रतिक्रियायें जो आ रही हैं वह जायज हैं। भारत पर इस तरह का हमला करवाने वालों को पता चलना चाहिये कि हम कोई कमजोर मुल्क नहीं है। इस हमले में मारे गये सभी शहीदों और निर्दोश नागरिकों को मेरी श्रद्धांजलि है। एसी घटनायें नहीं होनी चाहिये। राजनीति को आज या कल तो आरंभ होना ही था। यह राजनेताओं का काम है, लेकिन नेताओं को भी दोष दे कर क्या होगा? अब लोगों को समझने की बारी है,पाकिस्तान की जनता को भी समझना होगा इस राजनीति को। मेरा अपना मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जितना दबाव बना सकते हैं, पाकिस्तान पर, वो बनाया जाए ताकि पाक में जो भी आतंकी ट्रैनिंग कैंप है, वो खत्म हो। |
Friday, September 17, 2010
मनोज बाजपेयी एक गाँव का आदमी है
Thursday, August 26, 2010
मेरे क्रिकेट गुरू ने सभी का सम्मान करना भी सिखाया: सहवाग
दिल्ली के पास स्कूल में पढ़ने वाला एक बच्चा। चार बजे माँ उसे उठाती और पाँच बजे तक वह अपने खाने का डिब्बा, क्रिकेट का बल्ला, पैड्स आदि पूरी किट के साथ प्रैक्टिस पर पहुँचने के लिए बस स्टैंड पर होता था। सुबह तो बस में फिर भी जगह मिल जाती थी, पर लौटते वक़्त खचाखच भरी बस में क्रिकेट किट के लिए जगह बनाने की कोशिश में कई बार ड्राइवर, कंडक्टर और दूसरी सवारियों की झल्लाहट और डाँट भी झेलनी पड़ती थी। पर कोई चारा नहीं था। 1500-2000 रुपये का बल्ला अगर बस में टूट जाता तो जल्दी दूसरा मिलता नहीं। बच्चा किसी तरह जगह बनाकर अपनी क्रिकेट तपस्या जारी रखे हुए था। धीरे-धीरे और रोज़ उसे देखते-देखते बस के ड्राइवर-कंडक्टर उसके लिए जगह रखने लगे। फिर जैसे-जैसे उसका नाम और पहचान बढ़ी, बस में जगह भी सुरक्षित रहने ल गी।यह बच्चा और कोई नहीं वीरू यानी वीरेंद्र सहवाग था। याद हैं पुराने दोस्त बस में जाने वाले छात्र का जब भारतीय टीम में चयन हो गया तो बड़ी पार्टी हुई और जश्न में कई बस ड्राइवर और कंडक्टर भी शामिल हुए। बकौल सहवाग, “आज भी मेरी पार्टियों में कभी-कभी उन दिनों के साथी होते हैं जब मैं कुछ नहीं था। उन दिनों के साथी मुझे भोली के नाम से जानते हैं।” अपने संघर्ष के समय के शुभचिंतकों और साथियों को याद रखने वाले यह खिलाड़ी हैं भारतीय टीम के सबसे धमाकेदार, आक्रामक और धुआंधार बल्लेबाज़ों में से एक वीरेंद्र सहवाग। डॉन ब्रैडमैन और ब्रायन लारा के अतिरिक्त सहवाग एकमात्र ऐसे बल्लेबाज़ हैं जिन्होंने दो या अधिक तिहरे शतक बनाए हैं। विनम्र स्वभाव हंसते-मुस्कराते, बड़ी शालीनता से और हर सवाल का जवाब बहुत ही नम्रता और धैर्य के साथ देने वाले सहवाग से बात करते हुए लग ही नहीं रहा था कि हम ताबड़तोड़ शैली की बल्लेबाज़ी के लिए प्रसिद्ध उस सहवाग से बात कर रहे हैं जिनके साथ ड्रैसिंग रूम में हरभजन सिंह जैसे खिलाड़ी भी मौजूद रहते हैं। सहवाग कहते हैं, “मेरे क्रिकेट गुरू ने मुझे सिर्फ़ खेल ही नहीं सिखाया। बड़ों और छोटों सभी का सम्मान करना सिखाया। चाहे वह ग्राउंड्समैन हो या स्टेडियम में सफ़ाई करने वाला व्यक्ति, मैं सबका सम्मान करता हूँ और जहाँ तक हो सके उनसे अच्छी तरह बात करता हूँ।” सहवाग आगे कहते हैं, “शायद इसीलिए मुझे संजय दत्त की गांधीगिरी और जादू की झप्पी, दोनो ही बहुत पसंद आईं थीं।” फ़िल्मों की बात चली तो उन्हें हाल ही में प्रदर्शित ‘रेस’ अच्छी लगी थी। माधुरी दीक्षित उनकी पसंदीदा अभिनेत्री है और शोले उनकी ऑलटाइम फेवरिट फ़िल्म। सहवाग संयुक्त परिवार में बड़े हुए। उनके पिता व्यापारी थे और वे छह भाई थे। कोई 50-52 लोगों का भरा-पूरा परिवार था और बचपन की यादें सुखद हैं। बकौल सहवाग, “मेरी पिटाई कभी क्रिकेट खेलने के लिए नहीं हुई। डांट-फटकार अगर पड़ती भी थी तो पढ़ाई पर ध्यान नहीं देने के लिए।” कद-काठी और बल्लेबाज़ी करने के तरीके के कारण शुरुआती दिनों में उनकी तुलना बहुत लोग सचिन तेंदुलकर से करते थे। सहवाग कहते हैं, “मुझे बहुत अच्छा लगता था। मैं सचिन को खेलता देख ही खेलना सीखा था। वह मेरे आदर्श थे। मैं तो उनके सामने एकलव्य जैसा हूँ। ज़ाहिर है जब मेरी उनसे तुलना होती थी तो बहुत अच्छा लगता था। पर दरअसल मुझसे क्या शायद सचिन की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती। उनके जैसा खिलाड़ी दुनिया में कोई और नहीं है।” सहवाग के पसंदीदा खिलाड़ियों की सूची में ब्रायन लारा, सचिन तेंदुलकर, रिकी पोंटिंग और डॉन ब्रैडमैन हैं। शोएब नापसंद शोएब अख़्तर, ब्रेट ली और शेन बॉंन्ड उन्हें वो गेंदबाज़ लगते हैं जिन्हें अगर अवसर मिले तो वह खेलना पसंद नहीं करें। सहवाग कहते हैं, “लेकिन ऐसा होता कहाँ है। इन गेंदबाज़ों के ख़िलाफ़ रन बनाकर विशेष सुख की अनुभूति होती है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है।” महान और अच्छे खिलाड़ी का फ़र्क सहवाग की नज़र में क्या है, वो कहते हैं, “महान खिलाड़ी की खराब फ़ॉर्म के दिन कम होते हैं। सचिन जैसे खिलाड़ियों की फ़ॉर्म जल्दी लौट आती है, जबकि अच्छे खिलाड़ियों की खराब फ़ॉर्म लंबे समय तक चल सकती है।” विनम्र सहवाग ख़ुद को एक अच्छा खिलाड़ी मानते हैं। वो अपनी कमियों को समझते हैं और सुधारने की कोशिश में हमेशा लगे रहते हैं। कैज़ुअल नहीं सहवाग कहते हैं, “टीवी स्क्रीन पर जब आप देखते हैं कि मैं आउट होकर बहुत कैज़ुअल अंदाज़ में वापस पैवेलियन लौट रहा हूँ, लेकिन वास्तव में मैं उतना कैज़ुअल नहीं हूँ।” वो कहते हैं, “मुझे भी आउट होने पर बहुत दुख होता है। पर मैं अंपायर के फ़ैसले का विरोध कभी नहीं करता। कितनी बार हमें ग़लत फ़ैसले का लाभ भी तो मिलता है।” क्या वह अपने स्टाइल में बदलाव लाने के बारे में सोचते हैं, सहवाग कहते हैं, “जी नहीं। इस तरीके से अगर मैने एकदिवसीय और टेस्ट मैचों में पाँच-पाँच हज़ार से अधिक रन बनाए हैं तो यह तरीका या तकनीक बहुत गलत तो नहीं होनी चाहिए।” हरभजन का मज़ाकिया अंदाज उन्हें बहुत पसंद है और ड्रैसिंग रूम में उनकी दोस्ती आशीष नेहरा, युवराज सिंह, हरभजन और ज़हीर ख़ान से कुछ ज़्यादा है क्योंकि वो अंडर-19 के दिनों से साथ खेल रहे हैं। अपने छह महीने के बेटे आर्यवीर के जन्म के बाद से वह स्वयं में भी कुछ बदलाव महसूस कर रहे हैं। सहवाग कहते हैं, “पहले मुझे जल्दी गुस्सा आ जाता था, अब नहीं आता। धीरज भी कुछ बढ़ा है। वह रोता है तो मैं आधा-आधा घंटे धैर्य से उसे चुप कराने की कोशिश करता हूँ। उसके साथ खेलता भी हूँ।” क्या आप चाहते हैं कि आर्यवीर भी चौके-छक्के लगाने वाला क्रिकेटर बने? सहवाग कहते हैं, “कोई ज़रूरी नहीं कि वह क्रिकेट ही खेले। 20 साल बाद क्रिकेट खिलाड़ियों पर कितना दबाव होगा आज आप इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं। मैं सिर्फ़ यह चाहूँगा कि वह कुछ खेले ज़रूर क्योंकि खेल से वह बहुत कुछ सीखेगा।” |
Friday, August 20, 2010
कोई भी नत्था के मल का विश्लेषण करने के लिए पत्रकार नहीं बनता
आज मैंने 'पीपली लाईव' देखी तो मन बेहद दुखी हुआ। कुछ ही दिनों पहले मीडिया पर आधारित एक और फ़िल्म 'रण' आई थी। इन फिल्मों को देख कर लगता है कि इन्हें इसलिये बनाया गया कि सस्ती लोकप्रियता मिल जाये और फ़िल्म का खर्चा निकल जाये। पीपली लाईव को मैं सिर्फ इसलिए देखने गया था क्योकि इस फ़िल्म का चर्चित गाना 'सखी सईयां तो खूब ही कमात है महंगाई डायन खाए जात है' बेहद समसामयिक है और आमजन के दर्द को बयां करता है।
परन्तु फ़िल्म मे महंगाई को लेकर एक भी एक संवाद नहीं है। किसान आत्मह्त्या क्यूँ करता है, इसकी जड़ मे न तो जाने की कोशिश की गई ना ही और समाधान की तरफ कोई गौर किया गया। बल्कि किसान के आत्मह्त्या के लिए बेहद छिछला तर्क दिया गया की सरकारी स्कीम का फायदा उठाने के लिए किसान आत्महत्या करने को मजबूर है।
टीवी के पत्रकारों को तो ऐसे दिखाया गया कि मानो टीआरपी के लिए गिद्ध हो गए हों । इस फ़िल्म की निर्देशक अनुष्का रिजवी भी एक पत्रकार ही रही है, क्या अनुष्का उन्ही पत्रकारों के समूह से आई है जिनका चित्रण उन्होंने रूपहले पर्दे पर किया है। यह सही है की मीडिया खासतौर से टीवी मीडिया कंटेंट चयन मे भड़काऊ विषयों को महत्त्व देने लगा है, क्यूंकि विज्ञापन का मापदंड टीआरपी हो गया है। पेड न्यूज़ का मामला हो या विज्ञापन का मामला, मीडिया इस दलदल मे धंसता ही चला जा रहा है।
परन्तु कोई भी पत्रकार मीडिया मे इसलिये नहीं आता कि वह नत्था के मल का विश्लेषण करे। वह तो गंभीर पत्रकारिता के लिए ही मीडिया में आता है। वह देश का जागरूक नागरिक होता है जो जनहित से जुड़े विषयों को उठाने के लिए लालायित होता है। पत्रकार तो पत्रकार ही होता है। विज्ञापन या टीआरपी तो मीडिया संस्थान चलाने वाले मालिकों की विवशता है।
अगर मीडिया पर ही फ़िल्म बनानी थी तो एक व्यापक विषय उठाया जा सकता था कि आखिर मीडिया के पावं क्यूँ लड़खड़ा रहे है? परन्तु इस तरह का कोई भी विश्लेषण किसी फ़िल्म में नहीं हुआ, रण में थोड़ा-बहुत दिखाया गया, वह भी बेहद छिछला था। मैं भी मीडिया संस्थान चलाता हूँ । मै संस्थान चलाने के तकलीफों और जोड़ तोड़ को ठीक से समझ सकता हूँ। परन्तु कंटेंट से समझौता करने के लिए कोई भी कारण मीडिया संस्थान के मालिक कयूं न गिना दें, वह कतई जायज नहीं माना जा सकता।
मीडिया और अदालते न्याय और लोकतंत्र को जीवित रखने का कार्य करती हैं, इन्ही स्तंभों के आधार पर आमजनता का विश्वास संविधान सहित लोकतान्त्रिक ढांचे पर जमा रहता है। ऐसे में जब आदालतों से चूक होने लगती है तो संसाधन बढ़ाने की बात की जाती है, जजों की संख्या बढ़ाने की बात की जाती है। मीडिया के साथ भी यही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
असल में मीडिया की विश्वसनीयता कम होने से सबसे ज्यादा फर्क आम जनता को ही पड़ेगा। पुलिस-प्रशासन-राजनेता से आम जनता कि विश्वसनीयता पहले ही ख़त्म हो चुकी है। मीडिया एक ऐसे विकल्प के रूप मे है जहाँ हर कोई जा सकता है चाहे आम हो या विशिष्ट। मीडिया के प्रभाव के चलते समाज की कई समस्याओं का सही उपचार हुआ है। एसी फिल्मों के माध्यम से यदि मीडिया की अंशत: सच्चाई देख कर उस पर चोट की जाएगी तो इसका अर्थ लोकतंत्र पर चोट और दबंगतंत्र को सहलाना होगा।
यद्धपि मीडिया को भी आत्म मूल्यांकन करने की बेहद आवश्यकता है। ऐसी फिल्मे सीधे-सीधे मीडिया की आत्मा पर चोट है। हमें खुद को भी कार्पोरेट रहन - सहन का आदि होने से बचाना होगा। अगर हमारे पैरों मे विज्ञापन और टीआरपी के घुंघरू बंध जायेंगे तो हमें नचाने वाला एक व्यपारी होगा। जबकि हमें तो नाचना है आमजन की समस्या और राष्ट्रीय विकास के मुद्दों पर। आने वाले समय मे हिंदुस्तान की सांस्कृतिक और नैतिक दिशा क्या होगी यह केवल मीडिया ही निर्धारित करेगा। अतः हमें सदा इसके लिए तैयार होकर रहना होगा।
परन्तु फ़िल्म मे महंगाई को लेकर एक भी एक संवाद नहीं है। किसान आत्मह्त्या क्यूँ करता है, इसकी जड़ मे न तो जाने की कोशिश की गई ना ही और समाधान की तरफ कोई गौर किया गया। बल्कि किसान के आत्मह्त्या के लिए बेहद छिछला तर्क दिया गया की सरकारी स्कीम का फायदा उठाने के लिए किसान आत्महत्या करने को मजबूर है।
टीवी के पत्रकारों को तो ऐसे दिखाया गया कि मानो टीआरपी के लिए गिद्ध हो गए हों । इस फ़िल्म की निर्देशक अनुष्का रिजवी भी एक पत्रकार ही रही है, क्या अनुष्का उन्ही पत्रकारों के समूह से आई है जिनका चित्रण उन्होंने रूपहले पर्दे पर किया है। यह सही है की मीडिया खासतौर से टीवी मीडिया कंटेंट चयन मे भड़काऊ विषयों को महत्त्व देने लगा है, क्यूंकि विज्ञापन का मापदंड टीआरपी हो गया है। पेड न्यूज़ का मामला हो या विज्ञापन का मामला, मीडिया इस दलदल मे धंसता ही चला जा रहा है।
परन्तु कोई भी पत्रकार मीडिया मे इसलिये नहीं आता कि वह नत्था के मल का विश्लेषण करे। वह तो गंभीर पत्रकारिता के लिए ही मीडिया में आता है। वह देश का जागरूक नागरिक होता है जो जनहित से जुड़े विषयों को उठाने के लिए लालायित होता है। पत्रकार तो पत्रकार ही होता है। विज्ञापन या टीआरपी तो मीडिया संस्थान चलाने वाले मालिकों की विवशता है।
अगर मीडिया पर ही फ़िल्म बनानी थी तो एक व्यापक विषय उठाया जा सकता था कि आखिर मीडिया के पावं क्यूँ लड़खड़ा रहे है? परन्तु इस तरह का कोई भी विश्लेषण किसी फ़िल्म में नहीं हुआ, रण में थोड़ा-बहुत दिखाया गया, वह भी बेहद छिछला था। मैं भी मीडिया संस्थान चलाता हूँ । मै संस्थान चलाने के तकलीफों और जोड़ तोड़ को ठीक से समझ सकता हूँ। परन्तु कंटेंट से समझौता करने के लिए कोई भी कारण मीडिया संस्थान के मालिक कयूं न गिना दें, वह कतई जायज नहीं माना जा सकता।
मीडिया और अदालते न्याय और लोकतंत्र को जीवित रखने का कार्य करती हैं, इन्ही स्तंभों के आधार पर आमजनता का विश्वास संविधान सहित लोकतान्त्रिक ढांचे पर जमा रहता है। ऐसे में जब आदालतों से चूक होने लगती है तो संसाधन बढ़ाने की बात की जाती है, जजों की संख्या बढ़ाने की बात की जाती है। मीडिया के साथ भी यही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
असल में मीडिया की विश्वसनीयता कम होने से सबसे ज्यादा फर्क आम जनता को ही पड़ेगा। पुलिस-प्रशासन-राजनेता से आम जनता कि विश्वसनीयता पहले ही ख़त्म हो चुकी है। मीडिया एक ऐसे विकल्प के रूप मे है जहाँ हर कोई जा सकता है चाहे आम हो या विशिष्ट। मीडिया के प्रभाव के चलते समाज की कई समस्याओं का सही उपचार हुआ है। एसी फिल्मों के माध्यम से यदि मीडिया की अंशत: सच्चाई देख कर उस पर चोट की जाएगी तो इसका अर्थ लोकतंत्र पर चोट और दबंगतंत्र को सहलाना होगा।
यद्धपि मीडिया को भी आत्म मूल्यांकन करने की बेहद आवश्यकता है। ऐसी फिल्मे सीधे-सीधे मीडिया की आत्मा पर चोट है। हमें खुद को भी कार्पोरेट रहन - सहन का आदि होने से बचाना होगा। अगर हमारे पैरों मे विज्ञापन और टीआरपी के घुंघरू बंध जायेंगे तो हमें नचाने वाला एक व्यपारी होगा। जबकि हमें तो नाचना है आमजन की समस्या और राष्ट्रीय विकास के मुद्दों पर। आने वाले समय मे हिंदुस्तान की सांस्कृतिक और नैतिक दिशा क्या होगी यह केवल मीडिया ही निर्धारित करेगा। अतः हमें सदा इसके लिए तैयार होकर रहना होगा।
लेखक लीड इंडिया ग्रुप के संस्थापक और इसके सभी प्रकाशनों के मुख्य संपादक है।
Subscribe to:
Posts (Atom)