Friday, April 1, 2011

डीएवीपी ने ‘विज्ञापन नीति 2007’ का किया उल्लघंन


 पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए कोई ठोस सरकारी प्रयास नहीं किए गए। सरकार डीएवीपी बना कर भूल गई है। असल में प्रकाशकों को यदि कोई सरकारी सहायता मिलती है तो वह इसी सरकारी एजेंसी डीएवीपी के माध्यम से मिलती है और यहीं से डीएवीपी के नाख़ुदाओं की प्रकाशकों के ख़ुदा बनने की कहानी शुरू होती है।
नई विज्ञापन नीति 2007 के कड़े प्रावधानों को पूरा करते-करते प्रकाशकों की कमर टूट जाती है। डीएवीपी इम्पैनल्ड होने के बाद डीएवीपी में बने रहने के लिए ’पत्रकारिता’ सिर्फ सरकारी शर्त पूरी करने में लगी रहती है। अखबार मालिक पिछले बिल और अगले बिल के फेर में भटकते नजर आते हैं। जिन्हें विज्ञापन मिलता है उस पर डीएवीपी के बाबुओं का कमीशन फिट है।
ये कमीशन अकेला बाबु नहीं खाता। कमीशन ऊपर तक बंटता है। डीएवीपी के विषय में प्रचलित है कि अगर अपना अखबार इम्पैनल्ड कराना है तो एजेंट के बिना काम नहीं हो सकता। लेकिन यहां तो एजेंट का कॉंसेप्ट भी अलग है। जिस तरह हर सरकारी महकमें के पास दलाल घूमते मिलते हैं आपको यहां ऐसे दलाल नहीं मिलेंगे, क्योंकि प्रचलित शैली के आधार पर इन दलालों की सरकारी महकमों में पैठ होती है ये विभाग में कार्यरत नहीं होते, लेकिन डीएवीपी में ये काम बाहर का एजेंट नहीं करता बल्कि अंदर बैठे बाबु और अधिकारी खुद ही एजेंट की भूमिका निभा रहे हैं।

डीएवीपी के अंदर फैले भ्रष्टाचार से वहां इम्पैनल्ड हर अखबार परिचित है। लेकिन अपने अखबार को हर हाल में चलाने की जीजीविषा की खातिर वो इस विषय पर चुप्पी साधे रखना बेहतर समझता है। क्योंकि बेहद मुश्किलों से मिले इस अवसर को प्रकाशक खोना नहीं चाहता।

हालांकि यह बात अलग है कि सरकारी विज्ञापनों से मिलने वाली ये सहायता ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित होती है। पिछले 60 सालों में जहां देश में छटा वेतन आयोग लगने से सरकारी मातहतों की तनख्वाओं में दोगुनी-तिगुनी वृद्धि हुई, जहां देश में बढ़ती मंहगाई ने हर आवश्यक चीज में बेतहाशा वृद्धि की वहीं अखबारों को मिलने वाली सरकारी विज्ञापन दरों में घिसटते हुए कुछ ही प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

डीएवीपी के हालिया कृत्य को अगर ध्यान से देंखें तो पता चलेगा कि डीएवीपी किस कदर प्रकाशकों से बैर भाव रखती है।
कानून के मुताबिक इम्पैनल्ड होने के लिए डीएवीपी समाचार पत्रों से वर्ष में दो बार आवेदन मंगवाती है। एक बार अगस्त में और दूसरा फरवरी में। नई विज्ञापन नीति अक्टूबर 2007 के तहत फरवरी किए गए आवेदनों पर उसी वर्ष के माह में विचार किया जाना चाहिए और विज्ञापन का अनुबंध उसी वर्ष की एक जुलाई से शुरू होना चाहिए तथा अगस्त में किए गए आवेदनों पर नवंबर में विचार किया जाना चाहिए एवं उनका अनुबंध एक जनवरी से शुरू होना चाहिए।
लेकिन नाकारा हो चुकी डीएवीपी ने अगस्त 2010 में पैनलबद्ध करने हेतु मंगाए गए अखबारों पर अभी तक कोई निर्णय नहीं किया है। सच्चाई तो यह है कि डीएवीपी सुनियोजित तरीके से अखबारों से उनका हक छीन रही है। यदि डीएवीपी ने अगस्त 2010 में आवेदित अखबारों पर निर्णय ले लिया होता तो जिन प्रकाशकों का अखबार इम्पैनल्ड नहीं होता उन प्रकाशकों के पास फरवरी 2011 में  दुबारा आवेदन का अवसर होता।
अखबार के प्रकाशक पहले ही जबरदस्त आर्थिक बोझ तले दबे होते हैं, परंतु डीएवीपी की मनमानियों की वजह से उन सभी प्रकाशकों पर छः महीने का अतिरिक्त भार पड़ गया है जिनका अखबार किसी भी कारण से इम्पैनल्ड होने से रह जाता।
तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि सरकार ने विज्ञापन नीति 2007 बनाते समय प्रकाशकों की धरातलीय समस्याओं को छुआ भी नहीं। सरकार के सामने लक्ष्य स्पष्ट है कि उन्हें अपना महिमागान और जरूरी संदेशों को अधिक से अधिक जनता तक पहुंचाना है। नई विज्ञापन नीति 2007 के अनुच्छेद दो में साफ लिखा है कि सरकार विज्ञापन पत्र पत्रिकाओं की आर्थिक सहायता करने के लिए जारी नहीं करती। यानी स्पष्ट है सरकार अपने संदेश के यथा संभव प्रचार के लिए वो अखबारों का इस्तेमाल कर रही है।
इस इस्तेमाल के लिए सरकार ने डीएवीपी को माध्यम बनाया है। कहने के लिए तो डीएवीपी सरकारी विज्ञापनों को अखबार में छपवाने के लिए एक रूट मात्र है लेकिन असल में डीएवीपी प्रकाशकों का भयादोहन कर रही है।
आज जरूरत है कि अखबार के प्रकाशक सरकार की उन नीतियों का विरोध करें जो अखबार को स्वतंत्र बनाए रखने में बाधक हों।
तरुणा एस. गौड़्