Thursday, August 26, 2010

मेरे क्रिकेट गुरू ने सभी का सम्मान करना भी सिखाया: सहवाग

दिल्ली के पास स्कूल में पढ़ने वाला एक बच्चा। चार बजे माँ उसे उठाती और पाँच बजे तक वह अपने खाने का डिब्बा, क्रिकेट का बल्ला, पैड्स आदि पूरी किट के साथ प्रैक्टिस पर पहुँचने के लिए बस स्टैंड पर होता था। सुबह तो बस में फिर भी जगह मिल जाती थी, पर लौटते वक़्त खचाखच भरी बस में क्रिकेट किट के लिए जगह बनाने की कोशिश में कई बार ड्राइवर, कंडक्टर और दूसरी सवारियों की झल्लाहट और डाँट भी झेलनी पड़ती थी।
पर कोई चारा नहीं था। 1500-2000 रुपये का बल्ला अगर बस में टूट जाता तो जल्दी दूसरा मिलता नहीं। बच्चा किसी तरह जगह बनाकर अपनी क्रिकेट तपस्या जारी रखे हुए था।
धीरे-धीरे और रोज़ उसे देखते-देखते बस के ड्राइवर-कंडक्टर उसके लिए जगह रखने लगे। फिर जैसे-जैसे उसका नाम और पहचान बढ़ी, बस में जगह भी सुरक्षित रहने ल गी।यह बच्चा और कोई नहीं वीरू यानी वीरेंद्र सहवाग था।
याद हैं पुराने दोस्त
बस में जाने वाले छात्र का जब भारतीय टीम में चयन हो गया तो बड़ी पार्टी हुई और जश्न में कई बस ड्राइवर और कंडक्टर भी शामिल हुए।
बकौल सहवाग, “आज भी मेरी पार्टियों में कभी-कभी उन दिनों के साथी होते हैं जब मैं कुछ नहीं था। उन दिनों के साथी मुझे भोली के नाम से जानते हैं।”
अपने संघर्ष के समय के शुभचिंतकों और साथियों को याद रखने वाले यह खिलाड़ी हैं भारतीय टीम के सबसे धमाकेदार, आक्रामक और धुआंधार बल्लेबाज़ों में से एक वीरेंद्र सहवाग। डॉन ब्रैडमैन और ब्रायन लारा के अतिरिक्त सहवाग एकमात्र ऐसे बल्लेबाज़ हैं जिन्होंने दो या अधिक तिहरे शतक बनाए हैं।
विनम्र स्वभाव
हंसते-मुस्कराते, बड़ी शालीनता से और हर सवाल का जवाब बहुत ही नम्रता और धैर्य के साथ देने वाले सहवाग से बात करते हुए लग ही नहीं रहा था कि हम ताबड़तोड़ शैली की बल्लेबाज़ी के लिए प्रसिद्ध उस सहवाग से बात कर रहे हैं जिनके साथ ड्रैसिंग रूम में हरभजन सिंह जैसे खिलाड़ी भी मौजूद रहते हैं।
सहवाग कहते हैं, “मेरे क्रिकेट गुरू ने मुझे सिर्फ़ खेल ही नहीं सिखाया। बड़ों और छोटों सभी का सम्मान करना सिखाया। चाहे वह ग्राउंड्समैन हो या स्टेडियम में सफ़ाई करने वाला व्यक्ति, मैं सबका सम्मान करता हूँ और जहाँ तक हो सके उनसे अच्छी तरह बात करता हूँ।”
सहवाग आगे कहते हैं, “शायद इसीलिए मुझे संजय दत्त की गांधीगिरी और जादू की झप्पी, दोनो ही बहुत पसंद आईं थीं।”
फ़िल्मों की बात चली तो उन्हें हाल ही में प्रदर्शित ‘रेस’ अच्छी लगी थी। माधुरी दीक्षित उनकी पसंदीदा अभिनेत्री है और शोले उनकी ऑलटाइम फेवरिट फ़िल्म।
सहवाग संयुक्त परिवार में बड़े हुए। उनके पिता व्यापारी थे और वे छह भाई थे। कोई 50-52 लोगों का भरा-पूरा परिवार था और बचपन की यादें सुखद हैं।
बकौल सहवाग, “मेरी पिटाई कभी क्रिकेट खेलने के लिए नहीं हुई। डांट-फटकार अगर पड़ती भी थी तो पढ़ाई पर ध्यान नहीं देने के लिए।”
कद-काठी और बल्लेबाज़ी करने के तरीके के कारण शुरुआती दिनों में उनकी तुलना बहुत लोग सचिन तेंदुलकर से करते थे।
सहवाग कहते हैं, “मुझे बहुत अच्छा लगता था। मैं सचिन को खेलता देख ही खेलना सीखा था। वह मेरे आदर्श थे। मैं तो उनके सामने एकलव्य जैसा हूँ। ज़ाहिर है जब मेरी उनसे तुलना होती थी तो बहुत अच्छा लगता था। पर दरअसल मुझसे क्या शायद सचिन की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती। उनके जैसा खिलाड़ी दुनिया में कोई और नहीं है।”
सहवाग के पसंदीदा खिलाड़ियों की सूची में ब्रायन लारा, सचिन तेंदुलकर, रिकी पोंटिंग और डॉन ब्रैडमैन हैं।
शोएब नापसंद
शोएब अख़्तर, ब्रेट ली और शेन बॉंन्ड उन्हें वो गेंदबाज़ लगते हैं जिन्हें अगर अवसर मिले तो वह खेलना पसंद नहीं करें।
सहवाग कहते हैं, “लेकिन ऐसा होता कहाँ है। इन गेंदबाज़ों के ख़िलाफ़ रन बनाकर विशेष सुख की अनुभूति होती है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है।”
महान और अच्छे खिलाड़ी का फ़र्क सहवाग की नज़र में क्या है, वो कहते हैं, “महान खिलाड़ी की खराब फ़ॉर्म के दिन कम होते हैं। सचिन जैसे खिलाड़ियों की फ़ॉर्म जल्दी लौट आती है, जबकि अच्छे खिलाड़ियों की खराब फ़ॉर्म लंबे समय तक चल सकती है।”
विनम्र सहवाग ख़ुद को एक अच्छा खिलाड़ी मानते हैं। वो अपनी कमियों को समझते हैं और सुधारने की कोशिश में हमेशा लगे रहते हैं।
कैज़ुअल नहीं
सहवाग कहते हैं, “टीवी स्क्रीन पर जब आप देखते हैं कि मैं आउट होकर बहुत कैज़ुअल अंदाज़ में वापस पैवेलियन लौट रहा हूँ, लेकिन वास्तव में मैं उतना कैज़ुअल नहीं हूँ।”
वो कहते हैं, “मुझे भी आउट होने पर बहुत दुख होता है। पर मैं अंपायर के फ़ैसले का विरोध कभी नहीं करता। कितनी बार हमें ग़लत फ़ैसले का लाभ भी तो मिलता है।”
क्या वह अपने स्टाइल में बदलाव लाने के बारे में सोचते हैं, सहवाग कहते हैं, “जी नहीं। इस तरीके से अगर मैने एकदिवसीय और टेस्ट मैचों में पाँच-पाँच हज़ार से अधिक रन बनाए हैं तो यह तरीका या तकनीक बहुत गलत तो नहीं होनी चाहिए।”
हरभजन का मज़ाकिया अंदाज उन्हें बहुत पसंद है और ड्रैसिंग रूम में उनकी दोस्ती आशीष नेहरा, युवराज सिंह, हरभजन और ज़हीर ख़ान से कुछ ज़्यादा है क्योंकि वो अंडर-19 के दिनों से साथ खेल रहे हैं।
अपने छह महीने के बेटे आर्यवीर के जन्म के बाद से वह स्वयं में भी कुछ बदलाव महसूस कर रहे हैं।
सहवाग कहते हैं, “पहले मुझे जल्दी गुस्सा आ जाता था, अब नहीं आता। धीरज भी कुछ बढ़ा है। वह रोता है तो मैं आधा-आधा घंटे धैर्य से उसे चुप कराने की कोशिश करता हूँ। उसके साथ खेलता भी हूँ।”
क्या आप चाहते हैं कि आर्यवीर भी चौके-छक्के लगाने वाला क्रिकेटर बने? सहवाग कहते हैं, “कोई ज़रूरी नहीं कि वह क्रिकेट ही खेले। 20 साल बाद क्रिकेट खिलाड़ियों पर कितना दबाव होगा आज आप इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं। मैं सिर्फ़ यह चाहूँगा कि वह कुछ खेले ज़रूर क्योंकि खेल से वह बहुत कुछ सीखेगा।”



Friday, August 20, 2010

कोई भी नत्था के मल का विश्लेषण करने के लिए पत्रकार नहीं बनता

आज मैंने 'पीपली लाईव' देखी तो मन बेहद दुखी हुआ। कुछ ही दिनों पहले मीडिया पर आधारित एक और फ़िल्म 'रण' आई थी। इन फिल्मों को देख कर लगता है कि इन्हें इसलिये बनाया गया कि सस्ती लोकप्रियता मिल जाये और फ़िल्म का खर्चा निकल जाये। पीपली लाईव को मैं सिर्फ इसलिए  देखने गया था क्योकि इस फ़िल्म का चर्चित गाना 'सखी सईयां तो खूब ही कमात है महंगाई डायन खाए जात है' बेहद समसामयिक है और आमजन के दर्द को बयां करता है।
परन्तु फ़िल्म मे महंगाई को लेकर एक भी एक संवाद  नहीं है। किसान आत्मह्त्या क्यूँ  करता है, इसकी जड़ मे न तो जाने की कोशिश की गई ना ही और समाधान की तरफ कोई गौर किया गया। बल्कि किसान के आत्मह्त्या के लिए बेहद छिछला तर्क दिया गया की सरकारी स्कीम का फायदा उठाने के लिए किसान आत्महत्या करने को मजबूर है।
टीवी के पत्रकारों को तो ऐसे दिखाया गया कि मानो टीआरपी के लिए गिद्ध हो गए हों । इस फ़िल्म की निर्देशक अनुष्का रिजवी भी एक पत्रकार ही रही है, क्या अनुष्का उन्ही पत्रकारों के समूह से आई है जिनका चित्रण उन्होंने रूपहले पर्दे पर किया है। यह सही है की मीडिया खासतौर से टीवी मीडिया कंटेंट चयन मे भड़काऊ विषयों को महत्त्व देने लगा है, क्यूंकि विज्ञापन  का मापदंड टीआरपी हो गया है। पेड न्यूज़ का मामला हो या विज्ञापन का मामला, मीडिया इस दलदल मे धंसता ही चला जा रहा है।  
परन्तु  कोई भी पत्रकार  मीडिया मे इसलिये नहीं आता कि वह नत्था के मल का विश्लेषण करे। वह तो गंभीर पत्रकारिता के लिए ही मीडिया में आता है। वह देश का जागरूक नागरिक होता है जो जनहित से जुड़े विषयों को उठाने के लिए लालायित होता है। पत्रकार तो पत्रकार ही होता है। विज्ञापन या टीआरपी तो मीडिया संस्थान चलाने वाले मालिकों की विवशता है। 
अगर मीडिया पर ही फ़िल्म बनानी थी तो एक व्यापक विषय उठाया जा सकता था कि आखिर मीडिया के पावं क्यूँ लड़खड़ा रहे है?  परन्तु इस तरह का कोई भी विश्लेषण किसी फ़िल्म में नहीं हुआ, रण में थोड़ा-बहुत दिखाया गया, वह भी बेहद छिछला था। मैं भी मीडिया संस्थान चलाता हूँ । मै संस्थान चलाने के तकलीफों और जोड़ तोड़ को ठीक से समझ सकता हूँ। परन्तु कंटेंट से समझौता करने  के लिए कोई भी कारण मीडिया संस्थान के मालिक कयूं न गिना दें, वह कतई जायज नहीं माना जा सकता।  
मीडिया और अदालते न्याय और लोकतंत्र को जीवित रखने का कार्य करती हैं, इन्ही स्तंभों के आधार पर आमजनता का विश्वास संविधान सहित लोकतान्त्रिक ढांचे पर जमा रहता है। ऐसे में जब आदालतों से चूक होने लगती है तो संसाधन बढ़ाने की बात की जाती है, जजों की संख्या बढ़ाने की बात की जाती है। मीडिया के साथ भी यही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
असल में मीडिया की विश्वसनीयता   कम होने से सबसे ज्यादा फर्क आम जनता को ही पड़ेगा। पुलिस-प्रशासन-राजनेता से आम जनता कि विश्वसनीयता पहले ही ख़त्म हो चुकी है। मीडिया एक ऐसे विकल्प के रूप मे है जहाँ हर कोई जा सकता है चाहे आम हो या विशिष्ट। मीडिया के प्रभाव के चलते समाज की कई समस्याओं का सही उपचार हुआ है। एसी फिल्मों के माध्यम से यदि मीडिया की अंशत: सच्चाई देख कर उस पर चोट की जाएगी तो इसका अर्थ लोकतंत्र पर चोट  और दबंगतंत्र  को सहलाना होगा।
यद्धपि मीडिया को भी आत्म मूल्यांकन करने की बेहद आवश्यकता है।  ऐसी फिल्मे सीधे-सीधे मीडिया की आत्मा पर चोट है।  हमें खुद को भी कार्पोरेट रहन - सहन का आदि होने से बचाना होगा। अगर हमारे पैरों मे विज्ञापन और टीआरपी के घुंघरू बंध जायेंगे तो हमें नचाने वाला एक व्यपारी होगा। जबकि हमें तो नाचना है आमजन की समस्या और राष्ट्रीय विकास के मुद्दों  पर। आने वाले समय मे हिंदुस्तान की सांस्कृतिक और नैतिक दिशा  क्या होगी यह केवल मीडिया ही निर्धारित करेगा। अतः हमें सदा इसके लिए तैयार होकर रहना होगा।
लेखक लीड इंडिया ग्रुप के संस्थापक और इसके सभी प्रकाशनों के मुख्य संपादक है।