Friday, August 20, 2010

कोई भी नत्था के मल का विश्लेषण करने के लिए पत्रकार नहीं बनता

आज मैंने 'पीपली लाईव' देखी तो मन बेहद दुखी हुआ। कुछ ही दिनों पहले मीडिया पर आधारित एक और फ़िल्म 'रण' आई थी। इन फिल्मों को देख कर लगता है कि इन्हें इसलिये बनाया गया कि सस्ती लोकप्रियता मिल जाये और फ़िल्म का खर्चा निकल जाये। पीपली लाईव को मैं सिर्फ इसलिए  देखने गया था क्योकि इस फ़िल्म का चर्चित गाना 'सखी सईयां तो खूब ही कमात है महंगाई डायन खाए जात है' बेहद समसामयिक है और आमजन के दर्द को बयां करता है।
परन्तु फ़िल्म मे महंगाई को लेकर एक भी एक संवाद  नहीं है। किसान आत्मह्त्या क्यूँ  करता है, इसकी जड़ मे न तो जाने की कोशिश की गई ना ही और समाधान की तरफ कोई गौर किया गया। बल्कि किसान के आत्मह्त्या के लिए बेहद छिछला तर्क दिया गया की सरकारी स्कीम का फायदा उठाने के लिए किसान आत्महत्या करने को मजबूर है।
टीवी के पत्रकारों को तो ऐसे दिखाया गया कि मानो टीआरपी के लिए गिद्ध हो गए हों । इस फ़िल्म की निर्देशक अनुष्का रिजवी भी एक पत्रकार ही रही है, क्या अनुष्का उन्ही पत्रकारों के समूह से आई है जिनका चित्रण उन्होंने रूपहले पर्दे पर किया है। यह सही है की मीडिया खासतौर से टीवी मीडिया कंटेंट चयन मे भड़काऊ विषयों को महत्त्व देने लगा है, क्यूंकि विज्ञापन  का मापदंड टीआरपी हो गया है। पेड न्यूज़ का मामला हो या विज्ञापन का मामला, मीडिया इस दलदल मे धंसता ही चला जा रहा है।  
परन्तु  कोई भी पत्रकार  मीडिया मे इसलिये नहीं आता कि वह नत्था के मल का विश्लेषण करे। वह तो गंभीर पत्रकारिता के लिए ही मीडिया में आता है। वह देश का जागरूक नागरिक होता है जो जनहित से जुड़े विषयों को उठाने के लिए लालायित होता है। पत्रकार तो पत्रकार ही होता है। विज्ञापन या टीआरपी तो मीडिया संस्थान चलाने वाले मालिकों की विवशता है। 
अगर मीडिया पर ही फ़िल्म बनानी थी तो एक व्यापक विषय उठाया जा सकता था कि आखिर मीडिया के पावं क्यूँ लड़खड़ा रहे है?  परन्तु इस तरह का कोई भी विश्लेषण किसी फ़िल्म में नहीं हुआ, रण में थोड़ा-बहुत दिखाया गया, वह भी बेहद छिछला था। मैं भी मीडिया संस्थान चलाता हूँ । मै संस्थान चलाने के तकलीफों और जोड़ तोड़ को ठीक से समझ सकता हूँ। परन्तु कंटेंट से समझौता करने  के लिए कोई भी कारण मीडिया संस्थान के मालिक कयूं न गिना दें, वह कतई जायज नहीं माना जा सकता।  
मीडिया और अदालते न्याय और लोकतंत्र को जीवित रखने का कार्य करती हैं, इन्ही स्तंभों के आधार पर आमजनता का विश्वास संविधान सहित लोकतान्त्रिक ढांचे पर जमा रहता है। ऐसे में जब आदालतों से चूक होने लगती है तो संसाधन बढ़ाने की बात की जाती है, जजों की संख्या बढ़ाने की बात की जाती है। मीडिया के साथ भी यही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
असल में मीडिया की विश्वसनीयता   कम होने से सबसे ज्यादा फर्क आम जनता को ही पड़ेगा। पुलिस-प्रशासन-राजनेता से आम जनता कि विश्वसनीयता पहले ही ख़त्म हो चुकी है। मीडिया एक ऐसे विकल्प के रूप मे है जहाँ हर कोई जा सकता है चाहे आम हो या विशिष्ट। मीडिया के प्रभाव के चलते समाज की कई समस्याओं का सही उपचार हुआ है। एसी फिल्मों के माध्यम से यदि मीडिया की अंशत: सच्चाई देख कर उस पर चोट की जाएगी तो इसका अर्थ लोकतंत्र पर चोट  और दबंगतंत्र  को सहलाना होगा।
यद्धपि मीडिया को भी आत्म मूल्यांकन करने की बेहद आवश्यकता है।  ऐसी फिल्मे सीधे-सीधे मीडिया की आत्मा पर चोट है।  हमें खुद को भी कार्पोरेट रहन - सहन का आदि होने से बचाना होगा। अगर हमारे पैरों मे विज्ञापन और टीआरपी के घुंघरू बंध जायेंगे तो हमें नचाने वाला एक व्यपारी होगा। जबकि हमें तो नाचना है आमजन की समस्या और राष्ट्रीय विकास के मुद्दों  पर। आने वाले समय मे हिंदुस्तान की सांस्कृतिक और नैतिक दिशा  क्या होगी यह केवल मीडिया ही निर्धारित करेगा। अतः हमें सदा इसके लिए तैयार होकर रहना होगा।
लेखक लीड इंडिया ग्रुप के संस्थापक और इसके सभी प्रकाशनों के मुख्य संपादक है।

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