Wednesday, March 2, 2011

कमजोर नीति ने पैदा की पियक्क्ड़ो की फौज


बिहार के एक कस्बे में शराब विक्रेता ने एक व्यक्ति को मारकर लहूलुहान इसलिए कर  दिया क्योंकि उसने शराब विक्रेता को शराब बेचने से रोका था। हम इस घटना को उस समस्या से जोडकर देख  सकते है  जो लंबे समय से  बिहार के अलग -अलग इलाकों  मे देखने -सुनने को मिल रही है।  बेतहाशा बढ रहे शराब की दुकानों के खिलाफ महिलाओं ने अभियान-सा छेड दिया है। पुलिस एवं आबकारी विभाग से शिकायत करने के बावजूद राजधानी से कुछ ही दूरी पर स्थित बिहटा के पनाठी पंचायत की महिलाओं को अनवरत अभियान चलाने का निर्णय इसलिए लेना पडा क्योंकि पुलिस एवं आबकारी विभाग से शिकायत करने के बावजूद आज भी इन इलाकों में शराब के  निर्माण एवं बिक्री जारी है।
प्रदेश के विभिन्न इलाकों में जारी महिलाओं के इस अभियान में शराब की भट्ठी तोडने से लेकर धरना, प्रदर्शन आदि शामिल है। स्थिति यह है कि सरकार में शामिल जनप्रतिनिधियों को भी समय-समय पर अपने मुहल्ले में बेरोकटोक बिक्री की जानकारी देते हुए सरकार से उसे बन्द कराने हेतु गुहार लगाते रहना पडता है। मंत्री एवं अधिकारियों के जनता दरबार में जुटे फरियादियों में कुछ लोग नियम कानून को ताक पर रख कर शराब की भट्ठी खोलने की शिकायत करते हैं तो कई मुहल्ले में जगह-जगह शराब की बिक्री की शिकायत करते हैं। सामाजिक संगठनों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में शराबखोरी की वजह से कई लोग मौत की नींद सो गये। राज्य सरकार ने राजस्व वसूली के विचार से नयी आबकारी नीति-2007 लागू की तो सरकार के पास एकमात्र यही तर्क था कि नयी आबकारी नीति लागू होते ही अबैध शराब निर्माण पर रोक लग जाएगी, लेकिन हुआ उलटा। अवैध निर्माण पर तो रोक नहीं लगी, अलबत्ता जहरीली शराब से मौत का अंतहिन सिलसिला चल पडा है। आए दिन जहरीली शराब से मौत की घटनाएं एक नई समस्या के रूप में उभर रही है। पुलिस कागजी खानापूरी कर देती है और पुनः स्थिति यथावत रह जाती है। यह विडंबना ही कही जाएगी कि मीडिया जिस सरकार की उलब्धियों को को लेकर कसीदे तो गढती है उसी सरकार की  जनविरोधी नीति के प्रति चिन्ता क्यों नहीं प्रकट करती।

  बात शराब पीकर मरने की हो या फिर अनाज के बगैर हो, दोनों ही सूरत में मरते तो समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति ही है। इन गरीबों के लिए जरूरत सामाजिक व आर्थिक विकास की है। शराबखोरी से किसी भी व्यक्ति का सामाजिक व आर्थिक विकास  नहीं होता है, हां राज्य के खजाने जरूर भर जाते है। महिला संगठनों के अनुसार महिला एवं बच्चों के उपर चौतरफा दुष्प्रभाव पड रहा है। शराबखोरी के प्रचलन से सबसे अधिक महिलाओं को ही जूझना पडता है। जाहिर है शराबियों का कहर सबसे पहले अपनी पत्नियों के उपर ही तो टूटता है। शराब के नशे में पति, पत्नी को पीटता है। उसे होश ही नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है। कई बार नशे की हालत में ही दुर्घटना हो जाती है और परिवार बिखर जाता है। इस तरह तो सरकार समाज के सबसे पिछडे समुदाय की सामाजिक-आर्थिक रूप से सर्वाधिक पिछडी समझी जाने बाली महिलाओं का ही आर्थिक नुकसान कर रही है जिसने अमन चैन और खुशहाली के लिए प्रचंड बहुमत से एनडीए की सरकार को दुबारा सत्ता में लाया। शराबखोरी का सबसे अधिक दुष्प्रभाव भी उन्हीं लोगों पर पड रहा है जो किसी तरह मनरेगा से सौ-पचास रूपये कमाकर घर लौटता है, लेकिन घर पहुंचने के पहले  वह देशी शराब से अपने गले को तर कर लेता है। बीबी-बच्चों के लिए रोजमर्रे की चीजों के प्रबंध करने के बजाय वह खाली हाथ घर मदहोश होकर लौटता है।

शराबखोरी से उपजी आर्थिक बदहाली ने ही कभी गांधी को शराबबन्दी हेतु प्रेरित किया था। आजादी के बाद देश के बडे तबके को यह उम्मीद थी कि देश भर में शराब बंदी लागू कर दी जाएगी लेकिन इस मामले में तो बिहार सहित सभी राज्यों ने मानो अपनी आर्थिक निर्भरता शराब की बिक्री से और बढा ली है। तमाम राज्य सरकारें बाकायदा आबकारी नीति बनाती है जिसमें पियक्कडों, ठेकेदारों के हितों का ध्यान रखा जाता है । यह बुद्व, महावीर, गांधी, बिनोबा एवं जयप्रकाश नारायण के विचारों की ही हत्या ही मानी जाएगी। गांधी कहा करते थे कि जो शराब पीते है उनके बीबी, बच्चे सदा अभाव में जीने को मजबूर होते है। नयी नीति के लागू होने के करीब तीन-चार वर्षों में बिहार में शराब दुकानों की बेतहाशा वृद्वि हो गयी है। शराबखोरी  को बढावा मिला है। अब ग्रामीणों को निकट के बाजार में जाने के बजाय गांव में प्रयाप्त शराब मिल जाया करती है। लोग हैरान है कि कृषि एवं पशुपालन को बढावा देने के वायदे के साथ बनी नीतीश सरकार पूरे बिहार के गांव-गांव में शराब की दुकान खोलने की छूट क्यों दे रखी है। ग्रामीण अब मानने  लगे हैं कि  कृषि प्रधान बिहार में कृषि क्रांति, श्वेत क्रांति तथा नील क्रांति होने के बजाय यह क्या हो हो रहा है ? वे यह सोच कर परेशान हैं कि संपूर्ण क्रांति के नारों को जन्म देने बाले बिहार की धरती से  मदिराक्रांति का मानो आगाज हो रहा है। 
यह विरोधाभास ही कही जाएगी कि एक ओर जहां महिलाओं के सशक्तिकरण के नए-नए उपायों से संबंधित गतिविधियों को तेज करने पर बल दिया जा रहा है वहीं दूसरी ओर महिला घरेलू हिंसा एवं अपराध को बढावा देने में मददगार नयी आबकारी नीति को भी प्राथमिकता दी जा रही है। एक तरफ बाहुबलियों के अपराध पर नकेल डालने की कोषिश  हुर्हं तो दूसरी तरफ प्रदेश के गांवो में शराब पीने बालों की नयी फौज तैयार हो रही है । लोगबाग अब जगह-जगह बीयर या शराब की बोतले लिए खुले आम शराब पीने लगे हैं जिससे  महिलाओं को ही विषेश दुश्वारियों का सामना करना पडता है। शराब के दुकानों से होकर महिलाओं या स्कूल की छात्राओं का गुजरना दूभर हो गया है। अब तो प्रदेश के कई इलाकों के बस अड्डों, सडक मार्ग, तथा अन्य भीड भाड वाले इलाकों में दिन ढलते ही सरेआम शराब की बिक्री की जाती है। चलते-फिरते विक्रेता हॉकर की तरह शराब के पाउच, थैला आदि लिये रहते है। फेरी वाले शराब के पाउच से भरे बोरे अपने साईकिल पर टांगकर खेतों तक पहुंच जाते है। खेतों में काम कर रहे खेत मजदूर काम छोडकर खेतों के मेड पर ही सो जाते हैं। बिहार के कई ग्रामीण इलाकों का यही हाल है।

अब ग्रामीणों को निकट कें बाजार में जाने के बजाय गांव में पर्याप्त शराब मिल जाया करती है। शराब के अड्डों या शराब निर्माण वाले गांवों की महिलाएं अपने खेत, खलिहान एवं टोले में खुद को असुरक्षित समझती है। गांवों में पिछले तीन वर्षों में मदिरा पीने को लेकर अभूतपूर्व वृद्वि हुई है। ग्रामीणों के अनुसार गांवों में शराब बेचे जाने से गांव का माहौल खराब हो रहा है। गांव में अशांति फैल रही है। बेवजह तनाव बढ रहा है। नयी नीति के अनुसार 13 हजार 5 सौ की आबादी पर एक शराब की दुकान खोले जाने है।

जिस प्रदेश के गांवों में भुखमरी की पदचाप सुनाई पड रही हो वहां शराब आवाम के जीवन शैली का हिस्सा कैसे हो सकता है।  यह अलग बात है कि भुखमरी की खबरें अखबारों की सुर्खियां नहीं बन पाती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री बार-बार केन्द्र से विषेश राज्य का दर्जा हासिल करते हुए एक करोड पैंतालिस लाख परिवारों के लिए खाद्यान्न की मांग करते रहे है । इस तरह प्रदेश में कुल गरीब लोंगों की संख्या सात करोड पचीस लाख हो जाती है । बिहार की तकरीबन ग्यारह करोड लोगों में लगभग छियासठ प्रतिशत गरीबी रेखा के नीचे रहने बाले लोगों के लिए शराब के बजाय रोजी-रोटी का प्रबंध समीचीन होता, लेकिन इन बातों से मानो सरकार को कोई सरोकार  नहीं रह गया हैं ।

बिहार में जब अनेक सामाजिक व राजनैतिक संगठनों ने एक स्वर से बेतहाशा बढ रहे शराब की दुकानों के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया तो मजबूरन बिहार सरकार को शिक्षण संस्थानों एवं मंदिर मस्जिद आदि के आसपास शराब की दुकानों को हटाने का निर्णय लेना पडा, लेकिन सरकार के इस नकली प्रयास से लोगों की  नाराजगी दूर नहीं हुई है, क्योंकि सरकार की इस घोषणा से आबकारी नीति की सेहत पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पडने बाला है, इससे न तो अवैध शराब के निर्माण पर रोक लगने बाली है और न ही ग्रामीण क्षेत्रों में शराब की दुकानों की वृद्वि तथा न ही पीने बालों की संख्या रूकने बाली है। जनहित के प्रतिकूल होने के बावजूद यदि इस नीति को तवज्जो दी जा रही है तो इसके पीछे  मुख्यतः भारी राजस्व की प्राप्ति होना  है। इस संदर्भ में तेजी से विकास के लिए चर्चित बिहार अन्य राज्यों से अलग नहीं है। सवाल यह  है कि महज राजस्व में वृद्वि लिए समाज पर पडने बाले बुरे परिणामों की अनदेखी कैसे की जा सकती है।
राजीव कुमार