Friday, August 12, 2011

अखबार हुआ इम्पैनल्ड, डीएवीपी ने भेजा नॉट एप्रूव्ड का लैटर


डीएवीपी का एक और कारनामा सामने आया है। 22 जून 2011 को जिस अखबार को डीएवीपी की वेबसाइट पर इम्पैनल्ड दिखाया उसी अखबार को 28 जून 2011 को ‘नॉट एप्रूव्ड’ का लैटर भेज दिया।

इस अनियमितता का शिकार हुआ है गुजरात का वीकली अखबार ‘इंडिया हाइलाइट’। उक्त अखबार ने अगस्त 2010 को डीएवीपी में इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन दिया था। पीएसी मीटिंग से बाद प्रकाशक को डीएवीपी द्वारा कुछ डॉक्युमेंट जमा करने के लिए कहा गया ताकि उनका अखबार डीएवीपी एप्रूव्ड हो सके। पत्र मिलने के बाद प्रकाशक ने डीएवीपी द्वारा मांगे गए दो डॉक्युमेंट 1- कॉपी ऑफ प्रिंटिंग प्रेस, 2- कॉंट्रेक्ट लैटर बिटविन न्यूज़पेपर एण्ड प्रिंटिंग प्रेस डीएवीपी में सही समय पर जमा करा दिये।


इसके बाद प्रकाश ने 22 जून 2011 को डीएवीपी की ऑफिशियल वेबसाइट पर अपने अखबार का स्टेटस चैक किया जो वहां पर इम्पैनल्ड दिखा रहा था, उसका NO.210532 था। लेकिन छ: दिन बाद ही प्रकाशक को डीएवीपी द्वारा एक और लैटर भेजा गया। लैटर में बताया गया कि आपका अखबार पीएसी ने रिजेक्ट कर दिया है क्योंकि आपने उसमें ओरिजनल अनेक्सचर XII, अखबार की कॉपी और प्रिंटिंग प्रेस रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट नहीं लगाया था। रिजेक्ट करने के कारण इस बार डीएवीपी ने दूसरे बताए थे, जबकि जमा कराने के लिए दूसरे डॉक्युमेंट बताए थे। ये देख कर प्रकाशक हैरान रह गए क्योंकि ये सभी डॉक्युमेंट उन्होंने खुद डीएवीपी के ऑफिस में जकर जमा कराए थे।


ऐसे में डीएवीपी की कार्य प्रणाली और पीएसी की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठते हैं। सवाल यह भी है कि अगर एक अखबार जिससे कुछ डॉक्युमेंट दुबारा जमा कराने की फॉर्मेलिटी पूरी कराई जाती है उसे दूसरे कारण बता कर कैसे रिजेक्ट किया गया।

1. गंभीर सवाल यह भी है कि हर साल प्रकाशक जो आवेदन के दौरान अपने सभी डॉक्युमेंट जमा कराते हैं वो खो कैसे जाते है?

2. क्या प्रकाशकों द्वारा जमा कराए गए अखबार और उनके डॉक्युमेंट वास्तव में पीएसी की बैठक में रखे जाते हैं?

3. यदि हां तो कैसे कुछ अखबारों को डीएवीपी की वेबसाइट पर पहले ही ‘नॉट एप्रूव्ड’ कर दिया गया?

4. क्या डीएवीपी और पीएसी मिलकर लघु प्रकाशकों के साथ धोखा करते हैं?

डीएवीपी की विज्ञापन नीति 2007 के मुताबिक पीएसी में लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं से प्रतिनिधि शामिल करने की बात साफ लिखी है, लेकिन हर बार पीएसी की बैठक में डीएवीपी के प्रिय या विश्वसनीय कुछ व्यक्तियों को ही पीएसी में शामिल किया जाता रहा है। इसमें लघु एवं मध्यम समाचार पत्रों के किसी भी प्रतिनिधि को शामिल नहीं किया जाता। क्या डीएवीपी और पीएसी मिल बैठकर अखबारों का चयन कर लेते हैं कि किन्हें रखना है और किन्हे निकालना। इसके लिए किसी भी डॉक्युमेंट को चैक करने की आवशयकता नहीं होती।

अगर यही सत्य है तो प्रकाशकों को देश के दूर-दूर के कोने से इम्पैनलमेंट के नाम पर अखबार और डॉक्युमेंट जमा करने के लिए दिल्ली बुलाने का ढोंग करना बंद करे डीएवीपी। पारदर्शिता का ढोंग करने के लिए पीएसी में कुछ ऐसे चुनिन्दा लोगों को शामिल किया जाता है जो ना ही किसी लघु एवं मध्यम समाचरपत्रों के संगठन से जुड़े होते हैं और ना ही उनकी समस्याओं को समझते हैं।

घटिया चालों पर उतरा DAVP: प्रकाशकों को बरगलाने की कोशिश


प्रकाशकों को परेशान करने का जिम्मा अगर किसी विभाग ने उठाया है तो वो डीएवीपी है। अगर आप डीएवीपी में अगस्त में इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन देने के लिए सोच रहे हैं तो एक बार डीएवीपी इम्पैनलमेंट फ़ॉर्म में जोड़े गए बरगलाने वाले एक कॉलम को देखिए।


अगस्त 2011 में डीएवीपी इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन करने के लिए प्रकाशकों से एक नए प्रमाण पत्र की मांग की गई है। वो प्रमाण पत्र है ‘आईएनएस’ (गैर सरकारी संगठन) का सदस्यता प्रमाणपत्र। यानी अब प्रकाशकों में डीएवीपी द्वारा यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन करने के लिए आरएनआई सर्टीफिकेट या रेग्युलेरिटी सर्टीफिकेट की तरह ‘आईएनएस’ का सदस्यता प्रमाणपत्र लगाना होगा।

एक और विशेषता है कि जब आप आवेदन के लिए फॉर्म ओपेन करेंगे तो आखिरी के दो कॉलम ऑटोमेटिक सेलेक्ट मिलेंगे। जिसमें एक आईएनएस की सदस्यता वाला है दूसरा प्रेस कॉउंसिल ऑफ इंडिया में जमा कराई गई लेवी के रसीद का है। इस तरह ऑटोमेटिक सेलेक्शन से यह भ्रम और पुख्ता हो जाता है कि ये कॉलम फुलफिल करने अनिवार्य हैं। यहां ये जोड़ना अनिवार्य है कि प्रेस परिषद में दिया जाने वाला शुल्क देना संवैधानिक है। लेकिन किसी संस्था का सदस्य बनने के लिए बाध्य करना निहायत गलत और असंवैधानिक है।

हालांकि फॉर्म में दिए गए सेलेक्शन को हटा सकते हैं लेकिन डीएवीपी पूरी शिद्दत से प्रकाशकों के साथ खिलवाड़ करने में लगा है। वो हर ऐसी तरकीब ढूंढता है जिससे लघु एवं मध्यम प्रकाशक हताश होकर डीएवीपी में आवेदन की प्रक्रिया पूरी न कर सकें, जिसके बाद वो अपनी मॉनोपोली चला सकें।
अगस्त 2011 में डीएवीपी इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन के लिए दिए गए फ़ॉर्म में प्रकाशकों को भ्रमित करने के लिए जोड़ा गया नया कॉलम जिसमें आईएनएस का सदस्यता प्रमाणपत्र मांगा गया है। इस कॉलम में yes को पहले से ही सेलेक्ट किया गया है।


डीएवीपी द्वारा फैलाए जा रहे इस सुनियोजित भ्रम से प्रकाशक परेशान हैं। इस भ्रम फैलाने के पीछे का मकसद लीपा के माध्यम से उठ रही लघु एवं मध्यम प्रकाशकों की आवाज को कुचलना है। डीएवीपी में प्रकाशकों से साथ होने वाले दुर्व्यवहार से देश भर के प्रकाशक परिचित हैं, उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन डीएवीपी की इस हरकत से कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठ रहे है जैसे:

1. किसी भी प्रकाशक को किसी एनजीओ का सदस्य बनने के लिए बाध्य कैसे किया जा सकता है?

2. अगर डीएवीपी इम्पैनलमेंट के लिए आईएनएस की सदस्यता अनिवार्य नहीं है तो उस कॉलम को इम्पैनलमेंट फॉर्म में क्य़ों रखा गया है?

3. क्या डीएवीपी आईएनएस को प्रमोट करने का असंवैधानिक काम कर रही है?

4. क्या डीएवीपी और आईएनएस एक साथ मिलकर लघु समाचार पत्रों को कुचल देना चाहते हैं?

5. क़्या डीएवीपी ने यह कॉलम इसलिए लगाया है ताकि प्रकाशक भ्रमित हों और इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन ना करें?

    इससे पूर्व भी डीएवीपी ऐसी ही अनियमितताओं का प्रमाण दे चुका है लेकिन अब डीएवीपी की मनमानी और प्रकाशकों के हित के बीच लीपा खड़ा है। डीएवीपी में फैली अनियमितता का एक और प्रमाण 28 जुलाई को मिला, जब फरवरी 2011 में इम्पैनलमेंट के लिए आवेदन किए गए अखबारों पर विचार करने के लिए पीएसी की बैठक जारी थी तब एक प्रकाशक ने लीपा में शिकायत दर्ज कराई। उन्होंने बताया कि उनके अखबार का स्टेटस डीएवीपी की ऑफिशियल वेबसाइट पर ‘नॉट एप्रूव्ड’ दिखाया जा रहा है। जो कि उनके अखबार ‘आठवां आश्चर्य’ के साथ नाइंसाफी है। क्योंकि जब तक ‘आठवा अश्चर्य’ पीएसी की प्रकिर्या से नहीं गुजरा तब वह ‘नॉट एप्रूव्ड’ कैसे हो गया। इस पर लीपा ने जब डीएवीपी से सवाल किया तो डीएवीपी ने प्रकाशकों झूठा सिद्ध करने की कोशिश की।

    फरवरी 2011 में आवेदित अखबार की डीएवीपी स्थिति: पीएसी बैठक पूरी होने से पहले ही बता दिया गया ‘NOT APPROVED’


    लीपा की कड़ी आपत्ती के बाद ‘आठवां आश्चर्य’ का स्टेटस डीएवीपी की वेबसाइट से हटा लिया गया। लेकिन ऐसे ही कई और प्रकाशक भी थे जिनके अखबार का स्टेटस ‘नॉट एप्रूव्ड’ दिखाया जा रहा था। अपना बचाव करने के लिए अब डीएवीपी ने उस ‘सबमिट’ बटन को फ्रीज़ कर दिया जहां जाकर प्रकाशक अपने अखबार का स्टेटस चेक करते हैं। डीएवीपी की इस हरकत से भ्रष्टाचार की बू आ रही है। ऐसे में यहां यह भी सवाल उठते हैं कि:

    1. पीएसी मीटिंग से पहले कोई अखबार कैसे ‘नॉट एप्रूव्ड’ हो सकता है?

    2. जब तक पीएसी मीटिंग नहीं हुई उससे पहले ही किसी अखबार के ‘नॉट एप्रूव्ड’ होने का कारण कैसे बताया जा सकता है?

    3. क्या डीएवीपी के कुछ अधिकारी पीएसी मीटिंग से पहले ही यह तय कर लेते हैं कि किन अखबारों का इम्पैनलमेंट करना है और किन अखबारों का नहीं?

    4. डीएवीपी के अधिकारी दम्भ भरते हैं कि उनके यहां कोई अनियमितता नहीं होती। क्या इतने प्रमाणों और शिकायतों के बाद डीएवीपी कोई कार्रवाई करेगी?

      इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि डीएवीपी प्रकाशकों के सामने अप्रत्यक्ष रूप से ऐसी शर्तें रख रही है, जिससे प्रकाशक लीपा के पास डीएवीपी के खिलाफ अपनी कोई शिकायत दर्ज ना करा सकें।

      अब यह प्रकाशकों के हाथ है कि वो निडर और निष्पक्ष बनना स्वीकार करते है और डीएवीपी के द्वारा फैलाए जा रहे भ्रम में ना फंस कर अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हैं, या खामोश हो जाते हैं, क्योंकि ये एक नागरिक का मूल अधिकार है कि वो अपनी इच्छा से किसी भी धर्म, व्यवसाय, निवास स्थान का चुनाव करे। ये उस पर निर्भर है वो किस पार्टी को वोट दे या किस संस्था का सदस्य बने। किसी भी संस्था का सदस्य बनने के लिए प्रकाशकों को मजबूर करना या भ्रम फैलाना अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है।

      सच्चाई यह है कि लीपा की बढ़ती अद्वितीय प्रसिद्धी से घबराकर डीएवीपी लीपा को दबाने के लिए निरंतर प्रयासरत है। लीपा को भी पता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग आसान नहीं होती। चाहे वो लड़ाई सरकार के खिलाफ हो या सरकारी एजेंसी के खिलाफ। सत्य की इस लड़ाई में लीपा आखिरी तक पीछे नहीं हटेगा।